अंगूर की खेती के बारे में जानिए : अंगूर की विभिन्न किस्में , उपज और लाभ

Rahul Patidar
20 Min Read

करें अंगूर की आधुनिक खेती और पाए दोगुना लाभ

किसान भाई परंपरागत कृषि के स्थान पर बागवानी खेती पर भी ध्यान देने लगे हैं। परंपरागत कृषि के साथ में बागवानी खेती भी विशेष रूप से की जाने लगी है। बागवानी खेती में अंगूर की खेती विशेष स्थान रखती है। हमारे देश में अंगूर की खेती विशेष रूप से राजस्थान , दिल्ली , पंजाब , हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में की जाती है। किसान अंगूर की खेती करके अच्छा लाभ प्राप्त करते हैं। भारत के किन राज्यों में अंगूर की पैदावार में वृद्धि हुई है। वर्तमान में यहां के किसान भाई अंगूर की आधुनिक तकनीको अपनाकर भरपूर लाभ प्राप्त कर रहे हैं। अंगूर की खेती में उत्तर भारत में भी महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। मीडिया 1 के द्वारा अंगूर की खेती और किस्मों के बारे में जानेंगे।

अंगूर में पाए जाने वाले पोषक तत्व के बारे में चर्चा करें

अंगूर एक स्वादिष्ट और रसभरा फल हैं। अंगूर के कई फायदे हैं। अंगूर को फल के रूप में खाने के अतिरिक्त अंगूर से मुनक्का , किशमिश , ज्यूस , मदिरा , जैली और जैम भी बनाया जाता हैं। अंगूर में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व पाए जाते हैं जो सेहत के लिए फायदेमंद होते हैं। अंगूर में एंटी बैक्टीरियल और एंटी ऑक्सीडेंट तत्व पाए जाते हैं। अंगूर में एक फाइटोकेमिकल तत्व पॉलिफिनॉलिक पाया जाता है इसलिए अंगूर उपयोग स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। अंगूर हार्ट अटैक के खतरे को कम करता है साथ ही डायबिटीज के रोगी और कब्ज की शिकायत वाले रोगी के लिए अंगूर फायदेमंद है। अंगूर आंखों के लिए भी फायदेमंद होता है साथ ही यह कैंसर की कोशिकाओं को भी बढ़ने से रोकता है।

अंगूर की खेती के लिए मिट्टी और जलवायु का निर्धारण

अंगूर की खेती के लिए अच्छी जल निकास वाली मिट्टी होना चाहिए ताकि जलभराव की समस्या ना हो। अंगूर की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी रेतीली दोमट मिट्टी है । अधिक चिकनी मिट्टी अंगूर की खेती के लिए उचित नहीं होती है।
अंगूर की खेती के लिए जलवायु गर्म और शुष्क होना चाहिए । दीर्घ ग्रीष्म ऋतु अंगूर की खेती के लिए उचित होती है। जब अंगूर के पकने का समय होता है तब बारिश होना या बादल का होना अंगूर की फसल को हानि पहुंचाता है। दाने पड़ जाते हैं और अंगूर की गुणवत्ता खराब होती हैं।

अंगूर की खेती में रोपाई का समय

अंगूर की फसल की तैयार की हुई जड़ों की रोपाई दिसंबर से जनवरी माह में की जाती हैं।

जानिए , अंगूर की विभिन्न किस्में

अंगूर की विभिन्न किस्में पाई जाती है । अंगूर की उन्नत किस्में इस प्रकार है जैसे –

पूसा नवरंग किस्म

पूसा नवरंग किस्म एक संकर किस्म है।पूसा नवरंग किस्म के विकास का श्रेय भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली को जाता है। पूसा नवरंग किस्म में फल काले , बीज रहित और आकार में गोल होते हैं। इसके गुच्छे आकार में मध्यम होते हैं।पूसा नवरंग किस्म मदिरा एवं रस बनाने में उपयोगी है।पूसा नवरंग किस्म जल्दी पककर अधिक उपज देती हैं।

पूसा सीडलेस किस्म

पूसा सीडलेस किस्म मैं फल अंडाकार और एवं होते हैं। पक जाने पर फलों का रंग हरा पीला सुनहरा हो जाता है। इस किस्म में गुच्छे गठे हुए , लंबे , मध्यम , बेलनाकर और सुगंध युक्त होते हैं।पूसा सीडलेस किस्म में फल खाने के अलावा अच्छी किसमिस बनाने में भी सहायक है।पूसा सीडलेस किस्म जून के तीसरे सप्ताह तक पकना प्रारंभ होती है। पूसा सीडलेस किस्म के कई गुण थाम्पसन सीडलेस किस्म के समान है ।

शरद सीडलेस किस्म

शरद सीडलेस किस्म की बेरिया कुरकुरी , बिजरहित और स्वाद में मीठी होती है और इसका रंग काला होता है। इस किस्म को मुख्य रूप से टेबल प्रयोजन के लिए उगाया जाता है।शरद सीडलेस किस्म रूस की स्थानीय किस्म है और इसे किसमिस क्रोनी भी कहते है। इसमें TSS 24 डिग्री ब्रिक्स तक होता है।

ब्यूटी सीडलेस किस्म

ब्यूटी सीडलेस किस्म में फल काले , गोलाकार , बीज रहित और आकार में मध्यम होते हैं।इस किस्म में गुच्छे गठीले और मध्यम से बड़े लंबे होते हैं।ब्यूटी सीडलेस किस्म मई के अंत तक यानी कि बारिश के पूर्व पकने वाली किस्म हैं।
ब्यूटी सीडलेस किस्म में फलों में 17 से 18 घुलनशील ठोस तत्व पाए जाते हैं।

थॉम्पसन सीडलेस किस्म

थॉम्पसन सीडलेस किस्म की बेरिया आकार मे लंबी , त्वचा मध्यम और रंग पीला सुनहरा होता है।थॉम्पसन सीडलेस किस्म की गुणवत्ता अच्छी होती है और यह भी टेबल प्रयोजन के लिए उपयोगी हैं।थॉम्पसन सीडलेस किस्म की औसतन उपज प्रति हेक्टेयर 20 से 25 टन होती हैं।यह किस्म मुख्य रूप से कर्नाटक , आंध्र प्रदेश , तमिलनाडु और महाराष्ट्र मे उगाई जाने वाली किस्म हैं।

परलेट किस्म

अंगूर की पारलेट किस्म में बेल अधिक फल देने वाली और ओजस्वी होती है। इस किस्म में गुच्छे बड़े मध्यम और गति ले होते हैं। अंगूर की पारलेट किस्म उत्तर भारत में तेजी से पकने वाली किस्मों में से एक किस्म है। इस किस्म की मुख्य समस्या यह है कि इसमें घुटनों में छोटे-छोटे अविकसित फल होते हैं।
परलेट किस्म में फलों में 18 से 19 तक घुलनशील ठोस तत्व पाए जाते हैं।

परलेटी किस्म

परलेटी किस्म की बेरिया आकार में छोटी , गोलाकार और बीज रहित होती है तथा इस का रंग पीला हरा होता है।परलेटी किस्म की गुणवत्ता अच्छी होती है और यह भी टेबल प्रयोजन के लिए उपयोगी हैं।परलेटी किस्म कल्सटरों के ठोसपन के कारण किसमिस के लिए उपयोगी नहीं होती है।परलेटी किस्म की औसतन उपज प्रति हेक्टेयर 35 टन होती हैं।यह किस्म मुख्य रूप से दिल्ली , पंजाब और हरियाणा मे उगाई जाने वाली किस्म हैं।

भोकरी किस्म

भोकरी किस्म में बेरियां आकार में मध्यम लंबी , बीज वाली और त्वचा मध्यम पतली होती है तथा इसका रंग पीला हरा होता है। यह किस्म जंग और कोमल फफूंदी के प्रति अति संवेदनशील होती है।भोकरी किस्म कमजोर होती है और यह टेबल पर आवेदन के लिए उपयोगी होती है। इस किस्म की औसतन उपज प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर 35 टन होती हैं।यह किस्म मुख्य रूप से तमिलनाडू में उगाई जाने वाली किस्म हैं।

गुलाबी किस्म

गुलाबी किस्म की बेरिया आकार में छोटी , गोलाकार और बीज वाली होती है तथा इस का रंग गहरे बैंगनी होता है।यह क्रेकिंग के प्रति संवदेनशील नहीं होती है किंतु जंग और कोमल फफूंदी के लिए अतिसंवेदनशील होती है।गुलाबी किस्म की गुणवत्ता
अच्छी होती है और यह भी टेबल प्रयोजन के लिए उपयोगी हैं। गुलाबी किस्म की औसतन उपज प्रति हेक्टेयर 10 से 12 टन होती हैं।यह किस्म मुख्य रूप से तमिलनाडू में उगाई जाने वाली किस्म हैं।

काली शाहबी किस्म

काली शाहबी किस्म की बेरिया आकार में लंबी , अंडाकार , बेलनकार और बीज वाली होती है तथा इस का रंग लालबैंगनी होता है।काली शाहबी किस्म जंग और कोमल फफूंदी के लिए अतिसंवेदनशील होती है।काली शाहबी किस्म की औसतन उपज प्रति हेक्टेयर 12 से 18 टन होती हैं। यह किस्म छोटे पैमाने पर मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में उगाई जाने वाली किस्म हैं।

बंगलौर ब्लू (अंगूर का गुच्छा) किस्म

बंगलौर ब्लू (अंगूर का गुच्छा) किस्म की बेरीया आकार में छोटी , अंडाकार , बीज वाली और त्वचा पतली होती है तथा इसका रंग गहरा बैंगनी होता है। इसका फल अच्छी गुणवत्ता वाला और मुख्य रूप से शराब और जूस बनाने में उपयोगी होता है।यह एन्थराकनोज के लिए संवेदनशील और कोमल फफूंदी के लिए अति संवेदनशील है। यह किस्म मुख्य रूप से कर्नाटक में उगाई जाने वाली किस्म हैं।

अनब-ए-शाही किस्म

अनब-ए-शाही किस्म जब पूरी तरीके से पक जाती है तो यह आकार में मध्यम लंबी , बीज वाली और इसका रंग एम्बर हो जाता है।अनब-ए-शाही किस्म पंजाब , हरियाणा , कर्नाटक और आंध्रप्रदेश राज्य में उगाई जाने वाली किस्म है।अनब-ए-शाही किस्म मैं जूस मीठा और साफ होता है।ये किस्म कोमल फफूंदी के लिए अत्यधिक संवेदनशील किस्म है।अनब-ए-शाही किस्म देरी से पकने वाली और भारी मात्रा में उपज देने वाली किस्म है इसकी औसतन ऊपज 35 टन हैं।

कलम द्वारा अंगूर का प्रवर्धन कैसे करें??

अंगूर का प्रवर्धन कलाम द्वारा मुख्य रूप से कटिंग के रूप में होता है। अंगूर के लिए कलम रोगरहित स्वस्थ एवं पूर्ण रूप से परिपक्व टहनियों से ली जानी चाहिए। जनवरी के महीने में जब काट छांट की जाती है उन से निकली टहनियों से कलम ली जाती है। 23 से 45 सेंटीमीटर लंबी कलम और 4 से 6 गांठ वाली कलम ली जाती है।
इस बात का विशेष ध्यान रखें की कलम का ऊपर का कट तिरछा और कलम के नीचे का कट गांठ के ठीक नीचे ही होना चाहिए। कलम को तैयार की गई तैयारी में लगा देते हैं।
1 वर्ष पूर्व की जडयुक्त कलम को जनवरी के माह में नर्सरी से निकालकर खेत में रोपाई कर देते हैं।

अंगूर की बेलों के रोपण का कार्य

अंगूर की बेल के रोपण के पूर्व खेत को अच्छी तरह से तैयार करें। रोपण से पूर्व मिट्टी को अवश्य जांच लें। बेलों के मध्य की दूरी किस्म और बेलों को साधने की पद्धति पर निर्भर होती है। अब गड्ढे खोदे और इन गड्ढों की लंबाई और चौड़ाई 90 सेंटीमीटर रखें। इन गड्ढों में 1/2 मात्रा मिट्टी , 1/2 मात्रा गोबर खाद , 1 किलोग्राम सुपर फास्फेट , 500 ग्राम पोटेशियम सल्फेट और 30 ग्राम क्लोरिपाईरीफास के मिश्रण को गड्ढों में भर दें।
जनवरी के महीने में इन गड्ढों में 1 वर्ष पूर्व जडयुक्त कलमों को लगा दें ।लगाने के बाद सिंचाई करें।

बेलों को साधने और काट-छांट का कार्य

अंगूर की बेल से हमेशा अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए ऑर बेलों का आकार उचित रखने के लिए बेलो को साधने और काट-छांट का कार्य किया जाता है।
बेल को उचित आकार देने के लिए इसके अनुप्रयुक्त भाग को काटने को बेल को साधना कहते हैं।
बेल में जहां पर फल लगते हैं उस शाखा को सामान्य रूप से वितरण करने के लिए किसी भी हिस्से की छंटनी को काट छांट कहते हैं।

अंगूर की बेल साधने की विधि

अंगूर की बेल साधने की विधियों में बाबर , टेलीफोन , हेड , निफिन और पंडाल आदि विधियां प्रचलन में है किंतु व्यवसायिक स्तर पर पंडाल विधि ही अधिक उपयोगी साबित होती है।
पंडाल विधि द्वारा बैलों को साधने के लिए 2.1 से 2.5 मीटर की ऊंचाई पर खंभों के सहारे पर लगी तारों के जाल पर बैलों को फैला दिया जाता है। जाल तक पहुंचने के लिए एक ही ताना बनाया जाता है और जाल पर पहुंचने पर उस थाने को काट दिया जाता है जिससे कि पार्श्व शाखाएं उग जाए। की हुई प्राथमिक शाखा पर सभी दिशा में 60 सेंटीमीटर दूसरी पार्श्व शाखाओं को विकसित किया जाता है फिर इन द्वितीयक शाखा से 8 से 10 प्रत्येक शाखाएं विकसित होने लगती है।

अंगूर की बेलों की काट-छांट की विधि

अंगूर की बेल की काट छांट विधि से बैलों की अच्छी फसल प्राप्त हो जाती है इसीलिए उचित समय पर काट छांट कर दी जानी चाहिए। बेल जब सुसुप्त अवस्था में हो तब इनकी चटाई की जाती है इस बात का ध्यान रखें कि को कोंपले फूटने से पूर्व चटाई की प्रक्रिया पूर्ण कर लेनी चाहिए। सामान्य रूप से काट छांट का कार्य जनवरी माह में किया जाता है। छंटायी की विधि में बेल के जिस भाग में फल लगे होते हैं उसके अनचाहे या कुछ हद तक बढ़े हुए भाग को काट दिया जाता है । विभिन्न किस्मों के अनुसार कुछ स्पर को केवल एक अथवा दो आंख को छोड़कर शेष को काट दिया जाता है शेष को हम रिनिवल स्पर कहते हैं। सामान्य रूप से जिन शाखा पर फल लग चुके हैं उन्हें ही रिनिवल स्पर कहते हैं। छंटाई करते समय रोगियों और मुरझाई हुई शाखा को हटा देना चाहिए और साथ ही बेलो पर ब्लाईटोक्स 0.2 % का छिड़काव करना चाहिए।

अंगूर की खेती में सिंचाई कैसे की जाए??

अंगूर की बेल की जब चटाई हो जाती है तब सिंचाई अवश्य करना चाहिए। जब अंगूर में फूल आने लगे तथा पूरा फल बन जाए तब सिंचाई करना चाहिए। अंगूर में सिंचाई का कार्य तापमान तथा वातावरण में बदलाव को ध्यान में रखते हुए 7 से 10 दिनों के अंतराल में सिंचाई करनी चाहिए। जब फल पकना शुरू हो जाए तब सिंचाई बंद कर देना चाहिए। फलों की जब तुड़ाई हो जाती है तब एक बार सिंचाई अवश्य करें।

अंगूर की बागवानी में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग

अंगूर की बागवानी में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग इस प्रकार करें। बैलों की साधने की पंडाल विधि से शादी गई बेले 3 मीटर की दूरी पर लगाई जाती है तथा अंगूर की बैलों को 5 वर्ष हो जाए तब लगभग 700 ग्राम पोटेशियम सल्फेट , 700 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश , 500 ग्राम नाइट्रोजन और 50 से 60 किलोग्राम गोबर की खाद देना चाहिए। जब बेलों की छटाई का कार्य हो जाता है उसके तुरंत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में पोटाश और नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस की पूरी मात्रा देना चाहिए शेष बची हुई मात्रा पर लगने के बाद देना चाहिए। जब खाद एवं उर्वरकों को अच्छी तरीके से मिट्टी में मिला दिया जाए उसके तुरंत बाद सिंचाई करें।खाद डालने के लिए मुख्य तने से दूरी 15 से 20 सेंटीमीटर की गहराई पर खाद को डालें।

ध्यान दें फलों की गुणवत्ता पर

अंगूर की गुणवत्ता पर विशेष जोर दिया जाना चाहिए। अच्छी किस्म के अंगूर के गुच्छे माध्यम से बड़े आकार के बीज रहित दाने वाले , गुच्छों का आकार मध्यम , विशेष रंग और खुशबू वाले , बनावट और स्वादिष्ट होने चाहिए। सामान्य रूप से यह संपूर्ण विशेषताएं किस्म पर निर्भर करती है। ये विशेषताएं सामान्यत: किस्म विशेष पर निर्भर करती हैं। नीचे दी गई वीडियो के द्वारा अंगूर की गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है जो इस प्रकार हैं…..

•फलों की छंटाई करें

फसल के निर्धारण में छंटाई सबसे सस्ता और सरल साधन है। अधिक मात्रा में फल गुणवत्ता और पकने की प्रक्रिया पर अच्छा प्रभाव नहीं डालते हैं इसलिए बाबर पद्धति द्वारा बेलो को साधने की विधि में गुच्छे 60 से 70 और हैंड पद्धति द्वारा बैलों को साधने की विधि में 12 से 15 गुच्छे रखने चाहिए। इसीलिए फल लगने के बादी की अधिक संख्या में लगे गुच्छों को हटा दें।

•क्या है छल्ला विधि??

छल्ला विधि के द्वारा भी फलों की गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है। छल्ला विधि में बेल के किसी भाग लता ताना शाखा से 0.5 सेंटीमीटर चौड़ाई की छाल को छल्ले के रूप में उतार लिया जाता है। फलों के आकार में सुधार के लिए और आकर्षक रंग पाने के लिए फल पकना जब शुरू हो जाए तब छाल उतारनी चाहिए। सामान्य रूप से छाल मुख्य तने पर फल लगते ही तुरंत बाद 0.5 सेंटीमीटर चौड़ाई की छाल को छल्ले के रूप में उतार देना चाहिए इसीलिए इस विधि को छल्ला विधि कहते हैं।

अंगूर की तुड़ाई एवं पैदावार

अंगूर की बागवानी में जब फल खाने योग्य हो जाते हैं या फिर जब फलों को बाजार में बेचना हो उसी समय पर फलों को तोड़े क्योंकि अंगूर की बागवानी में फल तोड़ने के बाद पकते नहीं हैं। हेलो की चौड़ाई का कार्य प्रातः काल या साईं काल में ही करना चाहिए। अंगूर का उचित मूल्य लेने के लिए गुच्छे का वर्गीकरण करें और पैकिंग से पूर्व गुटों से टूटे और सड़े गले अंगूर को निकाल दे।
अंगूर की पैदावार की बात करें तो अच्छे रखरखाव वाले बगीचे से लगभग 3 वर्ष के बाद ही फल मिल जाते हैं और 2 से 3 दशक तक कल प्राप्त किए जा सकते हैं। वही किस में विशेष की बात करें तो परलेट किस्म के 14 से 15 वर्ष के बगीचे से प्रति हेक्टेयर 30 से 35 टन एवं पूसा सीडलेस से प्रति हेक्टेयर 15 से 20 टन फल प्राप्त किए जाते हैं।

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